दास्ताँ-ऐ-दरख्त (ग़ज़ल)
कल था इसकी शाखों पर परिदों का शोर,
आज उनका घोंसला क्यों सुना हो गया.
खुशियों सी हरियाली और फूलों से जज़्बात,
फिजा का वोह रंग क्यों खिज़ा में बदल गया.
देता था जो पैगाम जहाँवालों को अमन का ,
आगाज़ उल्फत का क्यों नफरत में बदल गया.
निराली थी जिसकी शान सारे गुलिस्तान में,
आज उसी के ज़बीं पर क्यों दाग रह गया.
हर आते-जाते मुसाफिर को साया देने वाला,
खुद देखो ! हाय ! क्यों अब सेहरा में खो गया.
कल हँसता था जिस वादे-सबा से हिल-मिल,
अब उसका भी इधर क्यों रुख ना रह गया .
उम्र भर अब लब पर आह और अश्क ,
बस यही उसके जीने का सामान रह गया.